अब ये नजर, दुनिया को छू लेने को तरसती है ।
पर एक दुनिया है, जो बरसो से इस चार दिवारी में बसती है ।
न जाने कौन सी जंजीर बांध के आती है,
जिंदगी भर के लॉकडाउन से आजादी को तरसती है |
हमने कुछ दिन गुजारे, फिर रोते रहे आज़ादी को,
काश! कभी सोचा होता उस "पर्दे" की पहरेदारी पर ।
जिनके पैदा होते ही, घरवालो के माथे पर शिकन सा होता है,
वो नादान बाप क्यों रोता है, अपनी लाचारी पर।
कभी रिश्तो, कभी समाज का भय दिखाकर,
पालता है झूठे संस्कारो के दलीलों पर,
उन्हें परदे में रखता है, फिर परदे की नशीहत दे,
बांधता है बंधन उनके तालिमो पर ।
शादी बाद... नया लॉक डाउन शुरू होता है उनके जीवन मे ।
ससुराल के कड़े नियम, लगते है जैसे हो वन में ।
झूठे संस्कारो की लक्ष्मण रेखा खिंच,
फिर फंसी रहती है, नए लॉक डाउन के बंधन में ।
काश! हर कोई समझ लेता,
जिंदगी भर के लॉक डाउन में फसी नारी को ।
निकलते जब बाहर इससे,
खत्म कर देते एक और महामारी को ।
पर एक दुनिया है, जो बरसो से इस चार दिवारी में बसती है ।
न जाने कौन सी जंजीर बांध के आती है,
जिंदगी भर के लॉकडाउन से आजादी को तरसती है |
हमने कुछ दिन गुजारे, फिर रोते रहे आज़ादी को,
काश! कभी सोचा होता उस "पर्दे" की पहरेदारी पर ।
जिनके पैदा होते ही, घरवालो के माथे पर शिकन सा होता है,
वो नादान बाप क्यों रोता है, अपनी लाचारी पर।
कभी रिश्तो, कभी समाज का भय दिखाकर,
पालता है झूठे संस्कारो के दलीलों पर,
उन्हें परदे में रखता है, फिर परदे की नशीहत दे,
बांधता है बंधन उनके तालिमो पर ।
शादी बाद... नया लॉक डाउन शुरू होता है उनके जीवन मे ।
ससुराल के कड़े नियम, लगते है जैसे हो वन में ।
झूठे संस्कारो की लक्ष्मण रेखा खिंच,
फिर फंसी रहती है, नए लॉक डाउन के बंधन में ।
काश! हर कोई समझ लेता,
जिंदगी भर के लॉक डाउन में फसी नारी को ।
निकलते जब बाहर इससे,
खत्म कर देते एक और महामारी को ।