Saturday, January 14, 2023

रात

ये बात थी, हर रात की।
कुछ दिल की , कुछ जज्बात की।

शोर थे बस, यादों में लपेटे हुये ,
कुछ पुरानी यादें और मैं, जीवन को समेटे हुए।

चमक थी बस सिक्को की, किस्सों में कोलाहल था,
खुशिया बंद थी  बोतलों में, जो बस अल्कोहल था।

दफ्तर बंद होते ही, कुछ यादें जेहन से लिपट जाती है।
थकान की किस्ते, रात होते ही बाहों में ले, सो जाती है।
 
"नींद का सूरज" भी, दोपहर में ढलता है।
इस "शहर" और "ख्वाब" से पूछा तो जाना, जीवन ऐसे ही चलता है। 

Sunday, November 20, 2022

ख्याल

 सवाल शहर का है..
पर ख्याल है घर का !
किस कूचे से गुजरू
ये कस्मकस है, हर पहर का।

तुम हो खामोश तो बातें कौंन सुनता है,
तरासे हुए कहानियो को, कौन धुनता है !
अकेलेपन का जहर भी अजीब है।
हिसाब रखता है, सुबह शाम दोपहर का।

अच्छा !! समय भी मेरे साथ सफर में था,
ये ख्याल भी, इस कदर में था.... कि ,
मुलाकातों की तारीखे भी तय है ,
 बस इंतजार है हमें देखने की, उनके  नजर का !

Thursday, May 28, 2020

Lockdown aur bharat ki Naari

अब ये नजर, दुनिया को छू लेने को तरसती है ।
पर एक दुनिया है, जो बरसो से इस चार दिवारी में बसती है  ।
न जाने कौन सी जंजीर बांध के आती है,
जिंदगी भर के लॉकडाउन से आजादी को  तरसती है |

हमने कुछ दिन गुजारे, फिर रोते रहे आज़ादी को,
काश! कभी सोचा होता उस "पर्दे" की पहरेदारी पर ।
जिनके पैदा होते ही, घरवालो के माथे पर शिकन सा होता है,
वो नादान बाप क्यों रोता है, अपनी लाचारी पर।

कभी रिश्तो, कभी समाज का भय दिखाकर,
पालता है झूठे संस्कारो के दलीलों पर,
उन्हें परदे में रखता है, फिर परदे की नशीहत दे,
 बांधता है बंधन उनके तालिमो पर ।

शादी बाद... नया लॉक डाउन शुरू होता है उनके जीवन मे ।
ससुराल के कड़े नियम, लगते है जैसे हो वन में ।
झूठे संस्कारो की लक्ष्मण रेखा खिंच,
फिर फंसी रहती है, नए लॉक डाउन के बंधन में  ।

काश! हर कोई समझ लेता,
जिंदगी भर के लॉक डाउन में फसी नारी को ।
निकलते जब बाहर इससे,
खत्म कर देते एक और महामारी को ।

Thursday, May 21, 2020

देश के हालात

सरकारे ट्विटर पर ,
अफवाहे  फेसबुक पर
नफरत व्हाट्सप्प पर।
बस ऐसे ही चल  रहा है देश हमारा।

वादें रैलियो  में ,
कार्यकाल रंगरेलियों में,
नियम  कानून पहेलियों में ,
मजदूरों की जान उनकी हथेलियों में ,
बस ऐसे ही चल  रहा है देश हमारा।

घोषणाएं अखबारों में ,
काम से ज्यादा खर्च इस्तिहारो में ,
अधूरे काम  फंसे है मझधारो में,
अब पत्रकारों भाव उपलब्ध है, बाजारों में।
बस ऐसे ही चल  रहा है देश हमारा।

अर्थवयवस्था बदहाल है,
सरकारी आंकड़ों पर भी सवाल है ,
मुर्तिया बनवा लो, अब प्राथमिकताओं में, कहाँ स्कूल और अस्पताल है ,
गलती से भी सवाल मत पूछना, नहीं  तो बवाल है।
बस ऐसे ही चल  रहा है देश हमारा।

पत्रकारों के भी कलम चल रहे है  सिक्के पर,
बिपक्ष व्यस्त  है दाव लगाने में, जोकरों और इक्के पर,
शहर बनाने वाले, आज सड़क नाप दिये फटे जुत्ते पर,
बस ऐसे ही चल रहा है देश हमारा।

Sunday, October 6, 2019

मैं कौन हूँ ?


कभी भीड़ से निकल कर कहने दो मुझे कौन हूँ...
हां... सब कह रहे है, मैं सुन रहा हूँ, इसलिए मौन हूँ

ये जो मापते हो, आंकते हो मुझे,
तुम अपने तरक्की के  पैमाने से,
मै कब टूटा हूँ?
किसमत के आजमाने से |

रात  के  भागते  ख्वाबो  में,
खुद  को  नींद  से  जगाता  हूँ |
इस भागमभाग  में   सुबह  हो  जाती  है,
अब ख्वाब  या  नींद  कहाँ  पूरा  कर पता हूँ

एक  जिद्द  करता  हूँ,  इस  शहर  में बस जाने  की,
फिर ...न  जाने  क्यों  मन  करता है, इससे दूर भाग  जाने की |

असमंजस है, किसकी कहानी लिखू , किस की मै बातें सुनु,
सब के किस्से अपने, किसके जैसा ख्वाब बुनु |

ये  जो  काले  घेरे, आँखों  को  घेरे  है,
यही तो में मेरे ख्वाबो के दीप के अँधेरे है।
हर दिन मोटे होते  चश्मे के शीशे,
अब उम्र क और ख्वाब बहुतेरे है।

ख्वाब और जिम्मेदारी कुछ ऐसी है
सोता है शहर तो जागता हूँ |
कुछ.. कश्मकश ऐसी है.. नए ख्वाब बुनता हूँ ...
फिर नए शहर भागता हूँ।

अब हर नये ओहदे और तनख्वाह,
गुलाबी  गुलाल  से   लगते  है। 
जिम्मेदारियों के बोझ तले,
कुछ दिन बाद... होली के बदरंग गाल से लगते है | 

Sunday, October 18, 2015

सियासत

खुदा से विरोध कर, कुछ सवाल यूँ ही पूछ लिया।
ये सियासत थी, तवायफ सी, फिर इसे क्यों बना दिया।

शहर में दो बदनाम ठिकाने, कहाँ का इन्साफ है?
एक छुपकर हो तो पाप, दूसरे सरेआम सात खून माफ़ है ?

कोठे खुल जाए जिस शहर  में,  बदनाम सा लगता है।
चुनाव में, ये जो नुक्कड़ पर होता, क्यों सही काम सा लगता है।


अकेला हूँ, फिर भी  "खुदा" तेरा विरोध कर, शहर चला जाऊँगा ।
 गर कहनी होगी कुछ बाते "सरकार" से, भीड़ कहाँ से लाऊंगा।

लाख मरता होऊंगा, अपने मजहब अपने देश पर।
पर  उस मरने का सुबूत कहाँ से लाऊंगा।  

Monday, April 6, 2015

मुश्किल है अपना मेल प्रिये - New version

प्रसिद्ध कवि सुनील जोगी जी  की एक रचना है, उसमें कुछ अपनी लाइने जोड़ रहा हूँ। ये उन्ही की  है, कविता को आगे बढ़ने की कोशिस है।


तुम जानी मानी रचना  सी , मैं  ट्विटर  का  ट्रोल  प्रिये।
तुम सधी बाँसुरी सुरीली, मैं फटा हुआ  सा  ढोल प्रिये।
तुम चतुर चंचल सुन्दर सी, मैं बुड़बक बकलोल प्रिये।
तुम बटर चिकेन सी ललचाती, मैं तरकारी का झोल प्रिये।   
तुम शास्त्री जी सी कामकाजी, मै मोदी सा बड़बोल प्रिये। 

तुम देशी घी की गगरी हो, मैं ढक्कन का तेल प्रिये।
मुस्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं  है खेल प्रिये  .

तुम खिली हुई बहारो सी , में जंगल घनघोर प्रिये ,
तुम हसी खिलखिलाती चेहरे सी, मैं भिखमंगे का लोर प्रिये।
तुम म्यूजिक चैनल की गीतों सी, मैं न्यूज चैनल्स का शोर प्रिये।
तुम रहमान की ओरिजिनल कॉपी सी मै प्रीतम सा चोर प्रिये।

तुम बुलेट ट्रेन की रफ़्तार, मैं  लोकल पैसेंजर रेल प्रिये।
मुस्किल है अपना मेल प्रिये , ये प्यार नहीं है खेल प्रिये।

 तुम उन्मुक्त सी छन्दो वाली, मै धारा 66A का एक्जाम्पल हूँ।
तुम बीबीसी की एंकर जैसी, मैं जी न्यूज़ का सैंपल हूँ।
 तुम सदा बहार सरकारों वालो, मैं धरने का टेम्पल हूँ।


तुम भरी दोपहरी में ठंढी हवा, मैं धूल उडाता आंधी हूँ।
तुम प्रसिद्द इंदिरा सी जैसी, मैं पोगो देखता राहुल गांधी हूँ।
तुम हीरे की  चमचम की, मैं नकली  सा चाँदी  हूँ।
तुम स्विस देश की जन्नत सी, मैं चाइना की आबादी हूँ।

तुम शोरूम की शोभा हो, मैं फुटपाथ का सेल प्रिये।
मुस्किल है अपना मेल प्रिये , ये प्यार नहीं है खेल प्रिये।