Saturday, September 21, 2024

इंतजार

 एक ख्वाब है, जो उधार का है, 

कट रहे दिन भी इंतजार का है, 

कहने को किस्से हजारो थें, 

पर दिन जो है, बस  - चार का है।


मजधार में, निकल चुके कश्ती लिए, 

पर खेल तो अब पतवार का है,

नौ से पांच की राहें अब खो गई हैं,

जिंदगी तो अब बस शनि-रविवार का है।


खनकते सिक्कों में छिपे, सिसकते किस्से,

जैसे हर सिक्का, एक अधूरी आस सा है, 

तुम देखते रहे एक मुस्कुराता चेहरा, पर,

ये, अनगिनत टूटे ख्वाबो का, घर-बार सा है।


मिलना कभी, जाम ले.... बैठेंगे, 

अब मयखाना भी, मेरे दरबार सा है।

तुम भी अकेले हो, मैं भी तन्हा हूँ,

ये अकेलापन अब, परिवार सा है।