एक ख्वाब है, जो उधार का है,
कट रहे दिन भी इंतजार का है,
कहने को किस्से हजारो थें,
पर दिन जो है, बस - चार का है।
मजधार में, निकल चुके कश्ती लिए,
पर खेल तो अब पतवार का है,
नौ से पांच की राहें अब खो गई हैं,
जिंदगी तो अब बस शनि-रविवार का है।
खनकते सिक्कों में छिपे, सिसकते किस्से,
जैसे हर सिक्का, एक अधूरी आस सा है,
तुम देखते रहे एक मुस्कुराता चेहरा, पर,
ये, अनगिनत टूटे ख्वाबो का, घर-बार सा है।
मिलना कभी, जाम ले.... बैठेंगे,
अब मयखाना भी, मेरे दरबार सा है।
तुम भी अकेले हो, मैं भी तन्हा हूँ,
ये अकेलापन अब, परिवार सा है।