Wednesday, May 1, 2013

हर रोज गुनाहों का  परत दर परत खुलता है!
फिर भी, भाषणों से इनके, रोज दाग धुलता है!

रोटी रोटी चिल्लाता जो, उनको क्या पता,
पेट भरा इन्सान हर सुबह, पुराने राग भूलता है !

हक़ की खातिर उतरता, जो आदमी, सडको पर,
कभी बर्षा की धार, कभी सूरज का आग भूलता है !


हर गली में मिल जाते, बड़े कागज पर, दीवारों से लगे,
चमचई की आदत है ,सड़क से गुजरने वाला इन्हें, "जनाब" बोलता है!

कभी हालत देखना "सूबे" और इनके "घर" की,
इन्हें चुनने वाला , देश को ही  ख़राब बोलता है !


शातिर चोर है, जानते है गुर, वोट चुराने के,
तंगी की हालत में, कभी नोट कही शराब लगता है !

जमीर मरने, मारने का सिलसिला सुरु क्या हुआ,
अब शहर में, धन और सत्ता ही शबाब  लगता है !

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