Saturday, April 27, 2013

शनिवार की शाम

हर सुबह, हाथ में टिफ़िन लिए,
आदमी दफ्तर को बढ़ता है!
जिम्मेवारिया और कर्ज,
समय बढ़ते, सूरज सा चढ़ता है!

बच्चे की बढ़ी फीस भी ,
हर माह, थोडा जेब काटता है!
ओवरटाइम कर के भी, आदमी,
अब स्कूलों में  बाटता है !

रिश्तेदारों के तानो से,
थोडा सा डर लगता है!
नून रोटी भी चलता रहे,
ओवरटाइम खूब करे, दफ्तर घर  लगता है !

हर हफ्ते में एक दिन,
आदमी थोडा सा खुश होता है!
बड़ी जिंदगी में बस  एक दिन,
कम सा महसूस होता है !

शनिवार की शाम,
जीवन की  आपाधापी है!
एक छुट्टी मिलती है ,
जिम्मेवारिया ज्यादा है ये नाकाफी है!

दफ्तर से घर को,
भागता है, आदमी पहाड़ सा बस देखकर,
हांकता है चालक भी,
उसे "हाड" सा बस देखकर!

कुछ करते, खूब बड़ी बड़ी बाते,
आदमी के बारे में, हाथो में भरकर जाम!
वो आदमी खड़ा सड़क पर,
ढूंढ़ता बस को, ये है उसकी शनिवार की शाम!

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