Sunday, February 3, 2013

!! तेरे शहर के लोग !!

अब न जाने क्यों ढूंढते है "मुझे", तेरे शहर के लोग!
इतना  भी  तो  बुरा नहीं था ,   मेरे   प्रेम के रोग !

हर हाथ में पत्थर था उनके,
जब था तेरी गलियों से गुजरा !
हर पत्थर पर खून था  लगा,
हर मंजर में था सन्नाटा पसरा !

मेरा किस्मत क्यों लाया,    ये  क्यों हुआ  ये संजोग!
अब न जाने क्यों ढूंढते है "मुझे", तेरे शहर के लोग!

कुसूर क्या था? बस दिल लगाने का,
दिल पर कब किसका बस चला है !
हम तो इश्क को जन्नत समझे ,
तेरे शहर वालो को, क्यों लगती ये बला है !

इतना भी  तो  बुरा  नहीं  था ,    मेरे  प्रेम के रोग !
अब न जाने क्यों ढूंढते है "मुझे", तेरे शहर के लोग!

अब तेरे शहर न लौटूंगा, भले क्यों न तडपाये, तेरे बिरह - बियोग!
मै तो हु सीधा-साधा, न जाने क्यों खौफ खाते, तेरे शहर के लोग !


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