Thursday, February 14, 2013

उसकी खामोश नजर,
कुछ कही ,पर समझ न पाया मै!
क्यों लफ्जो से बात करता,
जब इशारों को समझ न पाया मै!

न जाने क्यों, हर नज़ारे को,
अजीब सा देखती थी !
पत्थर सा था "वह" ,
जिसे सजीव सा देखती थी!

कभी बादलो की छत को,
जी भर के देखती!
कभी पुरुआ हवा से,
बदन को सेकती !

उस नादान को क्या कहता,
वो तो दिल की सुन रही थी!
शायद पिया मिलन की,
एक ख्वाब बुन रही थी!

शाम भी थी ढल चुकी,
रात पड़ाव लगा चुकी थी!
तारो की तैयारी हो रही थी,
चाँदनी दस्तक लगा चुकी थी!

सोच रहा था , सफ़र दूर है,
फिर वक़्त क्यों भाग रहा है!
बहुत कुछ है उसकी नजरो में,
उसे जानने को, एक दिल जाग रहा है!

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